उस लड़के ने अंगकोर वाट पे सूरज उगते देखा है!
दूसरी बार आए हैं यहाँ- आप्रवासन अधिकारी ने पूछा था।
हाँ, 8 साल बाद- मेरे जवाब पर वो हँस पड़ा था। और मैं सोच रहा था कि ‘स्टेट’ कहीं की हो, सब जानती है! पिछला पासपोर्ट ‘एक्सपायर’ हुए ज़माने हुए, इस वाले में वो वीज़ा नहीं था। फिर भी.
ख़ैर, उतरते जहाज़ से बाहर दिख रहा नज़ारा बता रहा था कि फ़्नोम पेन्ह (या नामपेन्ह? कुछ ख़ास नहीं बदला है। नीचे अब भी सड़कें बहुत कम थीं, मेकांग अब भी उतनी ही विशाल दिखती है, और सामने दिख रहे शहर में बहुमंज़िला इमारतें अब भी गिनी चुनी ही थीं- 2008 की पिछली यात्रा से शायद बस दो तीन ही बढ़ी हों।
कमाल ये कि एयरपोर्ट के बीचोंबीच अब भी एक छोटा सा तालाब है- ठीक वैसे जैसे पिछली बार था- शुक्र है टैक्सीवे के बग़ल, रनवे के नहीं। और हवाई अड्डा अब भी उतना ही छोटा था जितनी पिछली बार, जिसे देख तब भी रायपुर हवाई अड्डा याद आया था! (आज भी नहीं समझ आता कि रायपुर ही क्यों याद आया, कोई और छोटा हवाई अड्डा क्यों नहीं दसियों पर तो उतरा हूँ मैं! और कमाल- हवाई जहाज़ से सामान निकालने के लिए अब भी ट्रैक्टर ही था। अंदर अब भी वैसे व्यस्त नज़र आते अधिकारी थे जैसे व्यस्त केवल आप्रवासन अधिकारी ही नज़र आ सकते हैं। इमिग्रेशन से 10 मीटर से भी कम दूरी में नज़र आती कन्वेयर बेल्ट्स थीं, और अगले 10 में ख़त्म हो जाता अराइवल लाउंज!
हम फिर से कंबोडिया आ पहुँचे थे.
पर एक बड़ा फ़र्क़ था इस बार. वेलकम टू कंबोडिया- स्टैम्प के साथ पासपोर्ट लौटाते हुए इमीग्रेशन ऑफिसर ने कहा था और भागते ख़यालों को पल भर का ब्रेक लग गया था और एक नया सफर शुरू हो गया था!
This is just before the sunrise…
अबकी बार की यात्रा अंगकोर वाट के लिए थी. उस अंगकोर वाट के लिए जो दुनिया का सबसे बड़ा मंदिर परिसर है, जिससे पहली मुठभेड़ यूपी बोर्ड की छठवीं की हिन्दी की पाठ्य पुस्तक ज्ञान भारती (या सातवीं की? या आठवीं की?) में हुई थी, जिससे जाना था कि ये भगवान विष्णु के लिए 12वीं सदी में बनाया गया था. भारत के नक़्शे पर धुंधलके भर तक न दिखने वाले पूर्वी उत्तर प्रदेश के उस बड़े से गाँव में पढ़ते हुए तब कुछ नहीं पता था कि ऐसे मंदिर को देखने पर कैसा लगेगा!
तब तो खैर ये भी कहाँ पता था कि भगवन विष्णु के लिए बनाया गया ये मंदिर बढ़ते बढ़ते बौद्ध विहार हो गया था. हाँ, धान और गेंहूं के खेतों के रास्ते स्कूल जाने वाले उस गंवई लड़के तो तब भी ये पता था कि एक दिन उसे अंगकोर वाट देखना ही देखना है. कैसे भी! पर बस, देखना है!
और अब बहुत पतझड़ बाद वो लड़का नाम पेन्ह में खड़ा था- अंगकोर वाट से पहली डेट को तैयार!
लड़का दोपहर की फ्लाइट से उतरा था, देर रात नाम पेन से कुछ 6 घंटे दूर सिएम रीप (या सियाम रीप?) की ‘स्लीपर’ बस लेने को. लड़के के भीतर के शातिर बैकपैकर ने सालों की ऐसी यात्राओं में ऐसे करतब सीख लिए थे जिनसे कम पैसे में ज़्यादा घूमने को मिले। ऐसे की दिन भर वो नाम पेन घूमें जहाँ दशक भर बाद आये थे, और जिससे पहली मुठभेड़ ने उस वामपंथी को भीतर तक हिला दिया था. हाँ- नाम पेन से पहली मुठभेड़ उस लड़के की ‘मेरे नाम में नहीं’ वाले भाव से भी पहली मुलाक़ात थी, इस भाव के सोशल मीडिया पर हैश टैग बन जाने के सालों पहले!
पर इस बार लड़के को अपनी कंबोडिया से डेट को उदास नहीं करना था! इस बार चाओ पोनहिया यात हाईस्कूल, यानी तुओल स्लेंग जनसंहार संग्रहालय, उर्फ एस 21 बनने के पहले के स्कूल का नाम और किलिंग फील्ड्स दोनों को आखिरी दिन के लिए रखना था! पिछली सिहरन अब भी याद जो थी! स्मृति में ठीक-ठीक दर्ज है कि पांवों ने तब उस इमारत में घुसने से इनकार सा कर दिया था, कि खुद को लगभग घसीट कर अंदर घुसना पड़ा था। दिमाग में बस एक बात चल रही थी- न, ये कत्ल हम वामपंथियों के नाम पर किए गए हैं। कि भले हजारों किलोमीटर दूर एक दूसरे देश के वासी सही, इन हत्याओं में हमारी भी भूमिका है! खैर, न जाने कैसे खुद को खींच के में खींच लाने पर पहला स्वागत कब्रों ने किया था। उन लोगों की कब्रों ने जो खमेर रूज सरकार के पतन के चंद रोज पहले मार डाले गए थे।
सो लड़के ने एक बार जोर से सर झटक ज़ेहन को वापस अंगकोर वाट खींच लाने की कोशिश की, जाकर बस कंपनी के ऑफिस में सामान रखा- और फिर निकल पड़ा- वापस उस मेकांग के किनारे घूमने जिसे उसने सालों पहले देखा था, जहाँ गंगा से अपना नाम लेने वाली इस नदी पर उसे अपनी मनवर याद आयी थी! वहाँ से निकल फिर रसियन मार्किट जहाँ रसियन भले ही एक भी न मिलते हों, कंबोडिया खूब मिलता है! उसके बाद रो रो फेरी से (वही जो मोदी गुजरात चुनाव जीतने के लिए लाये थे पर जो चली आज तक नहीं) से सिल्क आइलैंड जाना, वाट नाम (नाम मंदिर) जाना पर इन सब पे बातें अगली किसी पोस्ट में! रात के साढ़े दस बज आये थे, लड़के को सिएम रीप की बस पकड़नी थी.
देखना था कि अंगकोर वाट पर उगते सूरज के जिस दृश्य ने ट्रेवल बुक्स में लाखों पन्ने गला दिए वो सच में उतना शानदार है या फिर ये बस ऐसे ही एक और जुमला निकलेगा! अपनी आँखों से ये देखने का वक़्त आ गया था!
और यकीन करिये, जब देखा तो पलकों ने झपकने से इंकार कर दिया! तिकी रहीं, एकटक! 800 साल से ज़्यादा पुरानी उस भव्य इमारत, दरअसल इमारतों को काले अँधेरे से सुनहली चमक में बदलते देखने के बाद उतना सुन्दर कुछ शायद नहीं ही देखना था! कभी नहीं! या फिर देखना था- है! वापस इसी अंगकोर वाट में किसी रोज़! कहते हैं कि अंगकोर पे हर मौसम में अलग सूरज उगता है. सबसे सुन्दर बारिशों के मौसम में! तब जब सब हरा हो जाता है.
लौट आयेंगे किसी बारिश में फिर, लड़के ने सोचा था!
वाह समर…आपकी विचारधारा के का धुर विरोधी हूं पर इस बार तारीफ करनी पड़ेगी आपकी
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पर आप विरोधी क्यों हैं? मैं तो शायद निजी रूप से जानता तक नहीं आपको! 😦
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वाह समर….मैं आपका विरोधी हूं पर इस बार दिल जीत लिया आपने
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कितना प्यारा लिखा है!😊
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नवाजिश, करम, मेहरबानी!
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वाह! बहुत अच्छा लगा पढ़कर! ❤
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में बस आपकी पोस्ट पढ़कर सोचता हूँ कि क्या कभी मुझे भी मौका मिलेगा इस छोटे से गाँव की इस छोटी सी खिड़की से बाहर झांकने का ।
खैर आपकी इतनी सुंदर और तार्किक और किसी को भी तर्कों से पटखनी देने लिखावट को कैसे सीखूँ कोई मंत्र वन्त्र सुझाइये महाराज
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